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आप की एंट्री भाजपा और कांग्रेस की टेंशन

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Last updated: 2024/10/06 at 4:58 AM
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आप की एंट्री भाजपा और कांग्रेस की टेंशन
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अनिल चतुर्वेदी
हरियाणा चुनाव में आप पार्टी की एंट्री ने भाजपा और कांग्रेस की टेंशन बढ़ा रखी है। दोनों ही पार्टियाँ जीत को लेकर जितनी आश्वस्त थीं उससे कहीं ज़्यादा अब दबाब में दिख रही हैं। यह अलग बात है कि केजरीवाल की पिटारी में भाजपा को कोसने और दिल्ली को दी गई फ्ऱी के लॉलीपॉप के अलावा कुछ और नहीं है पर अपने अलग अंदाज में दिए जा रहे भाषणों से वे ऐसी ताक़त बनने के फेर में लगे हुए हैं जिसके बिना हरियाणा में सरकार बनाने में इन दोनों पार्टियों को केजरीवाल की ज़रूरत महसूस हो। कांग्रेस अगर सूबे में सत्ता परिवर्तन देख रही है तो भाजपा सत्ता में तीसरी बार लौटने के लिए बेताल है। भाजपा को भरोसा है कि आप कांग्रेस का दलित और पिछड़े वर्गों के वोटों में सेंध लगाने के साथ ही जाट वोटों को काटेगी जिससे भाजपा को फ़ायदा होगा। जबकि कांग्रेस को अपने पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा पर भरोसा है। यही बजह रही कि हुड्डा को इस बार पार्टी हाईकमान ने पूरी छूट दी हुई है। यहाँ तक कि 90 सीटों वाली विधानसभा में 75 फ़ीसद टिकट हुड्डा की इच्छा से ही दिए गए हैं। जबकि केजरीवाल इन चुनावों में खुद को तीसरी बड़ी ताक़त बना लेना चाहते हैं। वे हरियाणा में मुफ़्त बिजली के साथ पिछले सभी बिल माफ़, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधा के साथ ही हरेक महिला को एक हज़ार रूपये देने की मुनादी पीटकर हरियाणा में अपनी ज़मीन तैयार करने में लगे हैं। मज़े की बात है कि केजरीवाल यह भी बता रहे हैं कि दूसरी पार्टियों की तरह उनकी दी जाने वाली गारंटियाँ फर्जी नहीं हैं। और रही बची कसर उनकी पत्नी यह कहकर पहले ही पूरी कर चुकी हैं कि अरविंद का जन्म जन्माष्टमी पर हुआ था और भगवान उनसे कुछ अच्छा ही कराना चाहते हैं। अब भला हरियाणा में कौन बना पाता है सरकार और कौन रह जाता है बेकार यह तो रही इंतज़ार की बात, पर यह ज़रूर दिख रहा है कि गिरफ़्तारी के दौरान राजनीति में जो कुछ भी केजरीवाल ने खोया होगा उसे वे हरियाणा विधानसभा चुनावों में हासिल कर लेना चाहते हैं।

आतिशी का दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने के साथ ही सत्ता के गलियारों में अगले साल दिल्ली में होने वाले विधानसभा चुनावों में आप पार्टी से सीएम के चेहरे को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं। फऱवरी में चुनाव होने की संभावना जताई जा रही है। ऐसे में आतिशी का कार्यकाल मात्र चार महीने का ही बचेगा। यानी दिल्ली के लिए बहुत कुछ करने की उनकी इच्छा भी दफ्ऩ हो लेगी। यह अलग बात है कि भरत की भूमिका में काम कर रहीं आतिशी को राजनीति के जिन दाँवपेंच या उम्मीदों में सीएम बनाया गया है उससे उनकी फिर से सीएम बनने की न तो बहुत इच्छा रह जानी है और न ही उम्मीदें पर सवाल तब यही बचेगा कि आप पार्टी की सरकार बनने में क्या वे सरकार में तीसरे नंबर की रहेंगी। ज़ाहिर है कि वे अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया से वरिष्ठ नहीं होगीं। राजनीतिक गलियारों में तभी यह चर्चा है कि पार्टी या तो चुनाव में विना चेहरे के उतरेगी या फिर भाजपा कांग्रेस को गरियाते हुए केजरीवाल का चेहरा ही चुनाव में होगा। हालाँकि पार्टी भाजपा के चुनावी तीरों के चलते ऐसा करने बचती दिख रही है लेकिन उसके सामने फिर आतिशी के अलावा दूसरा चेहरा नहीं हो पाएगा। भला मनीष सिसोदिया का पार्टी में कोई तोड़ न हो और सरकार में रहते शिक्षकों लेकर जो किया लोग जान चुके हैं पर ऐसा नहीं लगता कि पार्टी मनीष के चेहरे पर चुनाव लड़े। तय मानिए कि विधानसभा चुनावों में आप और कांग्रेस के बीच गठबंधन नहीं होना है ऐसे में उत्साही भाजपा बहुत कुछ करने के लिए व्याकुल रहे और कांग्रेस और आप में चलने वाली खींचातानी में ही उसे अपना दिल्ली का भविष्य नजऱ आ रहा हो। लेकिन फिलाहल दिल्ली के लोग भाजपा को दिल्ली से दूर रहते देख रहे हैं। और तभी लोग मान बैठे हैं कि आप एक बार फिर सत्ता में वापिसी करें लेगी। लेकिन सवाल फिर वही बचेगा कि दिल्ली की सत्ता में वापिसी के लिए आखऱि कौनसा चेहरा होगा ?

वक्त बदलता है तो सांडों को अपने सींग भारी लगने लगते हैं। या यूँ कहिए कि सांड या गाय जिन सींगों से अपनी सुरक्षा करते हैं वहीं उन्हें भारी महसूस होने लगते हैं। हरियाणा चुनावों में भी कुछ ऐसा ही देखा जा रहा है। पिछले साढ़े नौ साल तक हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे मनोहर लाल खट्टर अब अपनी को ही असहज महसूस होते दिख रहे हैं। यानी भाजपा को अपने इन नेताजी से चुनावी नुक़सान होते दिख रहा है सो वह जाने-अनजाने अपने इन साहब से दूरी रख मतदाताओं और नेताओं को यह संदेश देते दिख रहे हैं कि खट्टर अब पार्टी के इतने प्रिय नहीं रहे हैं। यह अलग बात है कि सूबे में पार्टी का जनाधार कम होने के बाबजूद खट्टर को केन्द्र मंत्री बना दिया गया। एक तो वैसे ही खट्टर चुनावी दौर में पार्टी नेताओं को माफिक़़ नहीं आ रहे थे ऊपर से एक चुनावी सभा में सवाल पूछने पर खट्टर ने आपा खो दिया और उसे धक्के देकर सभा से बाहर कराने का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हरजाने से खट्टर हरियाणा में लोगों की निगाह में खटकने लगे। अब भला इतनी बड़ी बात वो भी चुनाव हो तो पार्टी कैसे झेल पाती अपने ही खट्टर साहब को सो पार्टी ने उनसे चुनाव तक दूरी बनाने का रास्ता निकाला। पिछले दिनों जब सूबे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ग्रहमंत्री की चुनावी सभा हुईं और पोस्टर छपे तो खट्टर मंच पर तो देखे ही नहीं गए साथ ही पोस्टरों में से भी ग़ायब कर दिए गए।

भला मरता क्या नहीं करता सो वही पार्टी की भी मजबूरी बन गई। या फिर सीधे- सीधे यह कहिए कि जिस सूबे में मुख्यमंत्री खट्टर ने कऱीब एक दशक तक शासन किया वहीं की जनता से उन्हें दूर रखा जा रहा है। यूँ भी भाजपा हरियाणा में सत्ता में बरकरार रहने के लिए लगी है तो कांग्रेस सत्ता में फिर वापसी करने के लिए। जबकि सत्ता के इस खेल में अरविंद केजरीवाल की आप पार्टी अलग दाँवपेंच में लगी है। अब वह भाजपा या कांग्रेस के सत्ता में आने का खेल बिगाड़ती है या बनाती है यह बाद की बात है पर सत्ता के लिए छटपटा वो भी रही है। अब सत्ता के इस बनते बिगड़ते खेल में खेल भाजपा खेलती है या फिर कांग्रेस यह फ़ैसला तो चुनावी नतीजों से होगा पर अगर भाजपा ने सीएम उम्मीदवार तय नहीं किया है तो कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी नेताओं को यह संदेश देकर शांत करा रखा है कि पार्टी किसी एकता दो की नहीं बल्कि सभी की। संदेश तो यही कहता है कि भूपेन्द्र सिंह हुड्डा अगर खुद या बेटे दीपेन्द्र हुड्डा को सीएम बनाने की जुगत में तो पहले से मुहर नहीं है।

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